Friday, June 5, 2009

छुट्टन सा पेड

घर के कोने पे रहता वो छुट्टन सा पेड़
याद है! एकदम गुलमोहर के सामने ही है
कुछ कुछ हरा भरा बुनता रहता था वो
गुलमोहर को कहा करता था अक्सर कि
एक दिन तुमसे ऊँचा बढ़ के दिखलाऊंगा
आज देखा था उस बच्चू को मैंने ..
सर्दी की धूप वो में नहा रहा था
ऐंवें ही कुछ कुछ तो गुनगुना रहा था
मैंने भी मुस्कुरा के मुंह फेर लिया
पलटी तो देखा अब वो कराह रहा था
एक आदमी उसपे चढ़ के उसको काट रहा था
एक छोटी सी टहनी गिरी तो आह की आवाज़ मुझमें से आई
दूसरी कट ही रही थी तो मैंने आँखें भींच ली
एक आंख से देखा तो वो भी ढेह पड़ी
निचले घर के लोगों को छुट्टन पेड़ से खतरा था
कहते हैं अगर ये बड़ा हो गया तो क्या पता
कोई इसपर चढ़ के घर में घुस आया तो!
सुना है कभी की एक बढ़ते बच्चे की
परवरिश से किसी को खतरा हो जाए?
मेरा छुटन पेड़ .. हरे हरे मुलायम पत्तों वाला
कभी बड़ा नही हो सकता वो बच्चू.....
गुलमोहर आज शाम को उसपर मुस्कुरा रहा था
और वो बच्चू! बेलिबास सा ख़ुद ही में गढा जा रहा था
सर्दी की सांझ है अभी और वो कराह रहा है
एक बार सोचा की चाय दे आऊं उसको
कोई इंसान भी तो नहीं है न वो कि
उसको घर ले आऊं और सबसे बचा के रखूं
उसको मैंने यूँ ही तड़पती निगाह से देख आज तो वो बोल पडा
कि कभी बड़ा नही होना
कुछ कुछ क्या कुछ भी नहीं बुनना
तुम्हारा छुट्टन पेड़ कभी बड़ा नहीं हो सकता..

2 comments:

Pradeep Kumar said...

kavita itni achchhi aur bhavuk hai ki man ko chho gai aur ek saans main padh gayaa !
blog jagat main aapka swaagat hai !

Tamanna said...

dhanywad