शाम कि नमाज़ यूँ ही घुल जाती है
रूहानियत का जायका चाय काफी में आता है
फिर भी हलक में इबादत अटकने लग जाती है
रोज़ भूल जाते है हम है भी के नहीं
काश इक दिन आके कह दे वो
हां तुम हो, मेरी ही बिसात के प्यादे
दांव लगा है, आखिर तक खेलना है
एक जान, एक नया तमाशा आने तक
तुम होगे बुनियाद उसकी
चौसठ ओ बिसात मेरी ही कहलाएगी