Monday, January 25, 2010

बिसात

रोज़ मर्रा की मामूलन आवाज़ों में


शाम कि नमाज़ यूँ ही घुल जाती है


रूहानियत का जायका चाय काफी में आता है


फिर भी हलक में इबादत अटकने लग जाती है


रोज़ भूल जाते है हम है भी के नहीं


काश इक दिन आके कह दे वो


हां तुम हो, मेरी ही बिसात के प्यादे


दांव लगा है, आखिर तक खेलना है


एक जान, एक नया तमाशा आने तक


तुम होगे बुनियाद उसकी


चौसठ ओ बिसात मेरी ही कहलाएगी

तमन्ना

तमन्ना मचल रही है फिर
चाहिए थोड़ी सी ज़मीं, थोड़ी सी मिटटी,
बनाना है इक आंगन, इक झूला,
इक छत्त , इक चूल्हा

गुज़र के जाने को हो , हवा उस घर से,
शाख-पत्तों को हिलाकर
धुप में सूखते दुप्पटे को बुलाकर
आने को है कोई , गुड लेकर
इक भूला

आँगन

आसमां है कितना बड़ा, किसी को पता ही नहीं
छोटा सा है मेरे घर का आंगन, पर ये ढकता ही नहीं

कुछ खट्टी-मीठी सी आरजूं , खिलती है, किलकारियां मारती है
चुलबुली धूप कि, पैर रखने कि जगह देती ही नहीं

बादल ही काश दे रिमझिम बूंदे, आँगन ढका जायेगा मेरा
फिर कोई आरजू, कोई शिकायत नहीं

Tuesday, January 12, 2010

रास्ता

गए थे जहाँ मेले में मिलने के लिए
रह गए खुद ही गुम हो कर
आवाज़ देते रहे उन आरजुओं को


जिनका रास्ता ही पता न था