आसमां है कितना बड़ा, किसी को पता ही नहीं
छोटा सा है मेरे घर का आंगन, पर ये ढकता ही नहीं
कुछ खट्टी-मीठी सी आरजूं , खिलती है, किलकारियां मारती है
चुलबुली धूप कि, पैर रखने कि जगह देती ही नहीं
बादल ही काश दे रिमझिम बूंदे, आँगन ढका जायेगा मेरा
फिर कोई आरजू, कोई शिकायत नहीं
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment