Monday, January 25, 2010

बिसात

रोज़ मर्रा की मामूलन आवाज़ों में


शाम कि नमाज़ यूँ ही घुल जाती है


रूहानियत का जायका चाय काफी में आता है


फिर भी हलक में इबादत अटकने लग जाती है


रोज़ भूल जाते है हम है भी के नहीं


काश इक दिन आके कह दे वो


हां तुम हो, मेरी ही बिसात के प्यादे


दांव लगा है, आखिर तक खेलना है


एक जान, एक नया तमाशा आने तक


तुम होगे बुनियाद उसकी


चौसठ ओ बिसात मेरी ही कहलाएगी

2 comments:

निर्मला कपिला said...

सुन्दर रचना बधाई। गनतंत्र दिवस की शुभकामनायें

creativenimi said...

loved the perspective ...good thot.