शाम कि नमाज़ यूँ ही घुल जाती है
रूहानियत का जायका चाय काफी में आता है
फिर भी हलक में इबादत अटकने लग जाती है
रोज़ भूल जाते है हम है भी के नहीं
काश इक दिन आके कह दे वो
हां तुम हो, मेरी ही बिसात के प्यादे
दांव लगा है, आखिर तक खेलना है
एक जान, एक नया तमाशा आने तक
तुम होगे बुनियाद उसकी
चौसठ ओ बिसात मेरी ही कहलाएगी
2 comments:
सुन्दर रचना बधाई। गनतंत्र दिवस की शुभकामनायें
loved the perspective ...good thot.
Post a Comment