Friday, September 4, 2009

हया

कुछ खुल के कुछ मुस्कुरा के आ ऐ हया
कुछ अनकहे राजों को सुना
लम्हों को यू ही न बीत जाने दे
खिलती हुई सर्दी की धूप के जैसे आंगन में गिर जाने दे


रूठना बिगड़ना यही तो ढंग है मुहब्बत का
मानने मनाने में ज़िन्दगी को टूट के मिल जाने दे


पलकें यूँ उठा के मुस्कुरा न तू
बिखरी जुल्फों को सम्भाल न तू
जानता है तू मुझे जानती हू मैं तुझे
आज ईकरार हो जाने दे

दिल की बातें बयां कर के
मुझको आगोश में आने दे
रिम झिम बूंदों की सरगम में
ख़ुद को मुझमे समाने दे

कुछ खुल के कुछ मुस्कुरा के हया
लम्हों को यू ही बीत जाने दे




2 comments:

अर्कजेश Arkjesh said...

बहुत खूब कहा है।

Udan Tashtari said...

वाह!! बहुत बेहतरीन!